अब भी मैं समंदर किनारे जाता हूँ
अक्सर काफी वक़्त गीली रेत पर बिताता हूँ.. घर बनाता हूँ।
पर अब वो वहाँ पर नही है...और शायद लौटेगा भी नहीं...
सिर्फ उसकी एक हल्की सी याद है,इक मीठा एहसास है,भीनी सी खुशबू और साँसों की गर्माहट भी है
यूं तो मैं जानता हूँ की मेरे बचपन का वो जहाज़ काफी आगे निकल चुका है..अब तो किनारे से दिखता भी नहीं है
पर मुझे कोई शिकवा नहीं है.... क्योंकि उस जहाज़ पर मेरा सफर काफी खुशनुमा रहा है..
और फिर चलना और थमना तो सबकी आपनी विवशता है..
उस सफर की चंद तस्वीरे , गाहे बगाहे, आज भी वाबस्ता है
लेकिन...ये जो जहाज़ है,बड़ा ही दिलेर है
सबके लिए चलता है, सबको बिठाता है।
हिन्दू,मुसलमान, गरीब ,अमीर..हर कोई इसका लुत्फ़ उठता है।
आओ मैं अपने सफर से तुमको रूबरू करवाता हूँ।
अपने कुछ खट्टे-मीठे अनुभव सुनाता हूँ।
"" वक़्त की लेहेरों में गुम हो गया, इस गेहेरे समंदर में मेरा बचपन कही खो गया।
वो बारीश में गड्ढों में कागज की नाव।
वो सर्दी में गुड़, मूंगफली और अलाव।
वो पतंग के पीछे दौड़ते मेरे नन्हे पाँव।
लंगड़ी खेले भी अब तो ज़माना हो गया...
वक़्त की लेहेरों में गुम हो गया, इस गेहेरे समंदर में मेरा बचपन कही खो गया।
मेरे स्कूल के डिब्बे से अचार की एक महक आती थी।
कक्षा के कोलाहल में भी मन को एक शांति मिल जाती थी।
माँ के दिए चंद सिक्कों से दुनिया खरीदने का हौंसला रखते थे।
गटागट और बेसन की बर्फी में सारे सौदे करते थे।
पर अब मेरी साइकिल की चेन नहीं उतरती।
सपने में भी परियां मुझसे नहीं मिलती।
बाबा के जूते पोलिश किये तो ज़माना हो गया।
वक़्त की लेहेरों में गुम हो गया, इस गेहेरे समंदर में मेरा बचपन कही खो गया। ""
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